Thursday, June 5, 2008

Lachari

सुबह 7.30 बजे थे. मैं सैर करने अपने कमरे से निकल गया. इतनी हसीन सुबह मैंने अपनी ज़िंदगी में पहली बार देखी थी. रास्ते पर पत्ते किसी मखमली कालीन की तरह बिछे थे. हरे हरे पत्तों पर ओस की बूदें मोतियों जैसी लग रही थी. हल्की-हल्की धूप जैसे पेडों से छन कर आ रही हो. पंछियो की चहक मधुर संगीत की तरह इस सुबह को और भी मोहक कर रही थी. दूर तक बर्फ से ढके ऊँचे पहाड़, घने जंगल, बड़े मैदान - सब कुछ बहुत सुंदर लग रहा था. किसी ने इस जगह को धरती का स्वर्ग ऐसे ही नही कहा.

मेरी नज़र कुछ दूरी पर उड़ते हुए हल्के धुऐं पर पड़ी. जा कर देखा के एक चाय की टपरी थी. एक बूढ़ा आदमी चाय बना रहा था. पूछने पर उसने अपना नाम अब्दुल बताया. मैंने पूछा "चाचा, इतनी सुबह यहाँ चाय पीने कौन आता है? यहाँ तो आबादी भी बहुत कम है." अब्दुल बोला - "बेटा, यह तो समय की मार है, नहीं  तो बहुत लोग रहते थे यहाँ पर." मेरी उत्सुकता और बढ़ गई. सोचा चाय पीते पीते कुछ गप-शप करता हूँ चाचा से.

- "अच्छा तो चाचा फिर इतने लोग कहाँ चले गए?"
    - "दस्ते के डर से कश्मीर ही छोड़ कर चले गए हैं, बेटा."
- "दस्ता!!! यह दस्ता क्या होता है?"
    - "सरकार से नाराज़ लोग जो दूसरे लोगों को अपनी गोली का शिकार बनाते हैं, उनको दस्ता कहते हैं. कभी पैसे के लए तो कभी बदला लेने के लिए ...... "
- "चाचा, यहाँ पर लोगों को डर तो बहुत लगता होगा।"
    - "हाँ बेटा, कौन जाने कब कोई दस्ता आ जाये."
- "आप को डर नहीं लगता दस्ते से?"
    - "नहीं मुझे डर नही लगता।"
- "क्यों?"

मेरे इस सवाल ने शायद अब्दुल के दिल की दुखती रग छेड़ दी थी. कुछ देर के लिए खामोशी छा गई . मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. फिर चाचा ने घने अँधेरे जैसी खामोशी को तोड़ा.
"क्योंकि मेरा बेटा दस्ते में है."
अब्दुल मन ही मन खुद को कटोच रहा था. अब हम दोनों ही इससे आगे कुछ और बात नहीं करना चाहते थे।

3 comments:

Unknown said...

good one dude....keep them coming.

Maneesh said...

Its too good dost... Lage Raho...

Waise Abdul chacha ki chai kaisi thi..? :)

Pratap said...

great