Saturday, May 16, 2020

मार्ग-दर्शन


Sunday का दिन था। सुबह 8:00 बजे थे। सब लोग पूजा की तैयारी में लगे थे। पूजा का समय 10 बजे का था। घर पर अरविन्द जैन और उनकी पत्नी सुचिता जैन भाग दौड़ कर रहे थे। कभी आपस में टकरा रहे थे और कभी गुस्सा कर रहे थे।

अरविन्द:अरे जल्दी करो। सब तैयारी कर के खुद भी तैयार होना है। ऊपर से वह लड़के भी नहीं आये अभी तक। 8 बजे का टाइम दिया था। 8 तो बज भी गए। पता नहीं हैडमास्टर साहब ने किसको बोला  है आने के लिए? और हाँ, उन लड़कों  से हिंदी में बात करना, उनको English नहीं आती होगी। 

तभी घर की घंटी बजी। अरविन्द ने  बाहर जा कर देखा। 3 बच्चे स्कूल की uniform में  खड़े थे।

    - अंकल, हम जैन स्कूल से आये हैं। 

अरविन्द परेशान हो रहा था। 3 मासूम से बच्चे, शायद 7th या 8th क्लास के होंगे। अरविन्द ने हैडमास्टर साहब से 2 -3 volunteers को भेजने के लिए कहा था। अब जैन पूजा करवाने के लिए जैन स्कूल के लड़के ही ठीक थे। आखिर जैन स्कूल एक govt aided, Hindi medium स्कूल है जिसके साधारण लड़के काम भी करवा देंगे।  

अरविन्द (सुचिता से फुसफुसा कर): इनको कहां भेज दिया हैडमास्टर साहब ने? पता नहीं क्या काम करवाएंगे ये? थोड़े बड़े लड़कों को भेजना चाहिए था ना !!
सुचिता: आप भी ना बस ! अब जिन बच्चों ने volunteer किया होगा, हैडमास्टर साहब ने भेज दिया होगा।

अरविन्द ने बच्चों की तरफ ध्यान से देखा। अपनी साधारण सी सफ़ेद कमीज़, grey निक्कर और काले जूतों में खड़े 3 मासूम से बच्चे।

सुचिता:अरे, आप अभी तक यहीं खड़े हो? इतना काम पड़ा है। जल्दी अंदर आओ। 

बच्चों ने अपने जूते उतारे और अंदर आ गए। अरविन्द और सुचिता उन बच्चों को काम बता रहे थे।

- Kitchen .... मतलब रसोई से वो बर्तन ला कर यहाँ रख दो। और वो chairs अररर  .... कुर्सियां भी यहाँ लगा दो। 
- तुम  तब तक दरी बिछा दो। फिर वह फ़ूल ला कर यहाँ रख देना। 

तीनों को काम करने में कोई सँकोच नहीं था। पूरे ध्यान से अपने छोटे छोटे हाथों से सब काम कर रहे थे। बीच बीच में एक-दूसरे को देख कर मुस्कुरा देते और फिर से अपना काम करने लगते। उनकी  मुस्कराहट में शरारत भरी थी। पता नहीं आँखों आँखों में क्या बात कर लेते थे; एक-दूसरे का चेहरा कैसे पढ़ लेते थे !

सब काम 10 बजे से पहले ही खत्म हो गया था। हालांकि ज्यादा काम अरविन्द और सुचिता ने ही किया था, पर फिर भी बच्चों की वजह से दोनों को बहुत मदद मिल गयी थी।

पूजा शुरू हो चुकी थी। सब लोग भी आ गए थे। तीनों को सब के चाय-पानी का काम दे दिया गया। तीनों अपने नन्हें हाथों से सब को खाने का सामान दे रहे थे। ना तो चेहरे पर थकान थी और ना ही कुछ खाने की चाह।  बस अपना यूँ सा चेहरा ले कर पूरे निःस्वार्थ भाव से काम कर रहे थे। जिसका काम पूरा हो जाता वह एक side पर खड़ा हो जाता। सुचिता खुद ही देख कर कोई और काम दे देती। वे आपस में कुछ ख़ास बात नहीं कर रहे थे। बस कभी कभी अपने शरारती अंदाज़ में कुछ खुसर-फुसर कर लेते और होंठों में अपनी हंसी दबा कर फिर से काम करने लगते।

12 बजे तक पूजा खत्म हो चुकी थी। सब लोग जा चुके थे। तीनों बच्चे भी लकड़ी के table पर बैठे कर आराम कर रहे थे। उनकी कमीज़ें भीगी हुई थी पर फिर भी अपने पैरों से दुसरे के पैरों को टकरा कर मस्ती कर रहे थे। अरविन्द और सुचिता भी थक कर बैठ गए और सोचा, क्यों ना इन बच्चों से कुछ बात की जाये? जब से आये हैं तब से पानी तक नहीं मांगा इन्होंने।

अरविन्द: क्या नाम हैं तुम्हारे?
    - जी अंकल, मेरा नाम मुकुल है। और मेरा, अंश। मेरा नाम  कुलविंदर  है, अंकल। 

अरविन्द: आज तुम्हारे घर में भी पूजा है क्या?
    - जी नहीं तो,अंकल !! आज  तो जैन लोगों की पूजा है। 
बच्चे थोड़ा confuse हो कर एक-दूसरे को देख रहे थे।

अरविन्द अपने मन मेँ सोच रहा था - हैडमास्टर साहब को पता था कि जैन पूजा है। कम से कम जैन बच्चों को तो भेजना चाहिए था। अगली बार के लिए उनको बोल दूंगा।

अरविन्द: हम्म्म!! कहाँ से आये हो? घर कहाँ हैं  तुम तीनों के ?
    - वो, पास में ही है, अंकल। मॉडल टाउन में। 
अरविन्द को झटका लगा। "म ... म ... मॉडल टाउन में?"

अरविन्द: तुम्हारे parents .... मतलब माता-पिता क्या करते हैं?
    - जी, मेरे पापा P.W.D. में engineer हैं।  और मेरे पापा bank manager हैं। और अंकल, हमारा  readymade कपड़ों का शोरूम है main बाजार में। 

अरविन्द और सुचिता तो मानो सुन्न रह गये। इतने संपन्न परिवार के बच्चे और वह भी इतने साधारण स्कूल में !! इन बच्चों का व्यक्तित्व तो देखो - मासूम, निष्छल, निःस्वार्थ और घमण्ड से तो मानो कोसों दूर!!

सुचिता: तुम लोगों को भूख लगी होगी। मैं कुछ खाने को लाती हूँ।
    - नहीं आंटी। आप काम खत्म करवा लीजिये, फिर हमें घर जाना है।
सुचिता: नहीं ,और तो  ...
अरविन्द ने सुचिता की बीच में टोका और बोला - "अच्छा चलो, सब chairs वापिस रख दो और दरी उठा दो। बस फिर हो गया।"

सब काम होने के बाद सुचिता पूजा की थाली ले आई। तीनों बच्चों को तिलक किया और 1-1 लड्डू दिया।
    - यह क्यों, आंटी?
सुचिता ने मुस्कुरा कर कहा - "पूजा में ऐसा होता है। मिठाई है, खा लो। "
    - Thank you, आंटी।

तीनों घर से बाहर जा रहे थे, और अरविन्द उन्हीं को देख रहा था।

बच्चे घर से बहार निकले और फिर एकाएक रुक गए। उन्होंने अपने हाथों में रखे लड्डू को देखा, फिर एक-दूसरे को। और फिर अपने अपने लड्डू घर के बाहर side पर रख दिये। अरविन्द को यह देख कर गुस्सा आ गया। "इन्होंने ने तो प्रसाद का  निरादर कर दिया। ये बच्चे दिखा ही देते हैं कि एक साधारण  Hindi medium स्कूल और पब्लिक स्कूल की शिक्षा में क्या फर्क होता है।"  गुस्से से अरविन्द घर की बाहर तीनों बच्चों की तरफ भागा।

"सुनो, इधर आयो तीनों।" अरविन्द ने कठोर शब्दों में कहा।  "तुम ने प्रसाद का निरादर क्यों किया? तुम्हें वह लड्डू खाने के लिए दिया था।" 

तीनों सर झुकाए खड़े थे।

"क्या यही सिखाया है तुम्हें स्कूल में ? बोलो, नहीं तो तुम्हारी complaint हैडमास्टर साहब से कर दूंगा !!" अरविन्द की आंखें बड़ी और मुठ्ठियाँ भिंची हुई थी। 
    - अंकल, please आप  sirसे कुछ मत कहियेगा। मैं आपको सच बताता हूँ। बच्चों ने धीमी सी आवाज़ में कहा और सड़क की तरफ इशारा किया। "वो  ... वो  ... हमनें  वह  देख लिया था।  बस इसिलिये  .... "

अरविन्द ने थोड़ा आगे हो कर उस तरफ देखा। एक ज़नाज़ा जा रहा था। अरविन्द की टाँगे काँपने लगी। उसके मुँह से शब्द जैसे गायब हो गए। ग्लानि से उसका गला भर आया। इतनी गर्मी में 4 घंटे बिना कुछ खाए-पिये, काम करने के बाद भी भूख इनके संस्कारों से जीत नहीं पायी थी। किसी की मृत्यु देखने पर "मिठाई" खाना तो हमारे संस्कारों में है ही नहीं। 

बच्चे अभी भी सर झुकाये खड़े थे।

उसने अपने आप को संभाला और कहा - "अच्छा ठीक है। नहीं कहुँगा, जाओ।"
    - जी अंकल, नमस्ते। 

इतने में सुचिता भी वहाँ आ गयी। उसकी आवाज़ से अरविन्द चौंका। "कमाल करते हो आप भी ! जब बच्चों के बारे में सब पता चल ही गया था तो बाकी काम हम खुद ही कर लेते, बच्चों से क्यों करवाया?"

अरविन्द: क्या भगवान कभी अपना काम अधूरा छोड़ कर जाते हैं  ?

अरविन्द को बच्चों के संस्कार और शिक्षा के सामने सब बेमानी लग रहा था। उसके मन में उठे सब सवालों के जवाब उसे मिल चुके थे। उसने बच्चों को जाते हुए देखकर, अपने हाथ जोड़े और उसके मन से आवाज़ निकली - "भगवान, आज आपने साक्षात् आ कर हमारा मार्ग-दर्शन कर दिया।" सुचिता भी अपने हाथ जोड़ कर खड़ी थी।

तीनों बच्चे उनकी आँखों से ओझल हो चुके थे।



अपेक्षा: लेखक सब धर्मों का सम्मान करता है। पाठक धर्म और जाती से ऊपर उठ कर इस कहानी का आनंद लें।