सुधा बहुत गुस्से में थी। उसने ठान ली थी कि आज सुनील को सबक सिखा के ही रहेगी। बहुत परेशान किया है उसने पिछले कुछ बर्षों में। आज बताती हूँ कि नारी-शक्ति क्या होती है।
- "madam, आप यह 1 बार पढ़ लीजिये।", advocate आनंद ने सुधा का ध्यान भंग किया।
सुधा उन कागज़ के पन्नों को कई बार पढ़ चुकी थी। उसने जल्दी से 1 बार फिर से पढ़ा। इल्ज़ामों से भरे पन्ने और आखिर में सुधा की demands:
सुनील, उसके माता-पिता, उसकी बहन और भाई-भाभी पर मानसिक उत्पीड़न का मुकदमा
- "अपना case आ गया है। आ जाइए", advocate आनंद ने सुधा को courtroom में बुलाया।
वहाँ पर सुनील अपने वकील शर्मा जी के साथ पहले से मौजूद था। शर्मा जी ने बोलना शुरू किया-
Advocate शर्मा: "Judge madam, हम सबसे पहले आखिरी point पर बहस करना चाहेंगे।
Mr. सुनील के परिवार वालों पर कोई मुकदमा नहीं बनता। वे ना तो इस शहर में रहते हैं और ना ही उनका सुधा-सुनील जी के घर कोई आना-जाना है। फ़ोन पर भी बस birthday वगैरह पर ही बात होती है। मेरी court से प्रार्थना है कि इस point को ख़ारिज किया जाये।
सुधा advocate आनंद की ओर देख रही थी परन्तु advocate आनंद से कोई प्रतिक्रिया ना हुई। उन्होंने तो सुधा को यह लिखने के लिए पहले ही मना किया था। किसी प्रतिक्रिया के अभाव में judge madam ने advocate शर्मा का प्रस्ताव मान लिया।
शर्मा जी ने आगे बोलना शुरू ही किया था, सुनील आगे बढ़ा और शर्मा जी को बीच में टोका। वह judge साहब के आगे हाथ जोड़ कर खड़ा था।
सुनील: मैडम, मुझे नहीं जानना कि मुझ पर कौन-कौन से इलज़ाम लगाए गए हैं। जो भी इलज़ाम हैं, उन सब को सच मान लिया जाये। आप मुझे जो सज़ा देना चाहें, दे सकते हैं।
यह सुन कर सिर्फ सुधा ही नहीं बल्कि सुनील के वकील शर्मा साहब भी हैरान थे। ऐसे कैसे सुनील ने बिना कुछ जाने सब इलज़ाम कबूल कर लिए? सुनील ने आगे कहा -
सुनील: मैडम, आप मुझे जेल भेज दीजिये या कोई और कठोर सज़ा दीजिये। बस 1 बात - मैं सुधा को 1 पैसा भी नहीं दूंगा।
अब तो judge मैडम भी हैरान हो गई।
जज मैडम: Mr. सुनील, आप जेल जाने को तैयार हैं, पर पैसे देने को नहीं! ऐसा क्यों? लोग तो जेल से बचने के लिए पैसा पानी की तरह बहा देते हैं, और आपको पैसों से इतना लगाव? ऐसा पैसा किस काम का?
सुनील: मैडम, मेरा मानना है कि ज़िंदगी में कुछ चीज़ें कमानी पड़ती हैं, आपको ऐसे ही नहीं मिल जाती -जैसे इज़्ज़त और पैसा। सुधा पढ़ी-लिखी है, smart है। आज 2 साल हो गए हमें अलग रहते हुए, फिर भी सुधा job नहीं करती। असली दिक्कत यही है - वह जिम्मेदारियाँ उठाने में नाकाम रही। आप खुद ही देख लीजिये, इन्होंने बच्चे की custody की भी मांग नहीं की है। मुझे अपने बचाव में कुछ नहीं कहना। मेरी आपसे प्राथना है कि आप मुझे जेल भेज दें, लेकिन सुधा को अपनी ज़िम्मेदारियाँ खुद उठानी होंगी।
कुछ समय के लिए ख़ामोशी छायी रही। सुनील आगे बोलने की कोशिश कर रहा था लेकिन उसके शब्द जैसे गले से बाहर ही नहीं आ रहे थे। courtroom में सब उसी की तरफ देख रहे थे। आखिर सुनील हिम्मत जुटाई। सर झुका कर, हाथ जोड़ कर, बहुत झिझकते हुए, दबी आवाज़ में कहा-
सुनील: या फिर ... मुझे ... फ..फाँसी ... दे दीजिए। मेरी वसीयत ... सब कुछ ... सुधा का ही .... पर जब तक हो सकेगा ... मैं ... सुधा के लिए कोशिश करता रहूँगा।
सुधा पूरी तरह से अचंभित थी। उसने सुनील को जेल भेजने का कभी नहीं सोचा था। वह किसी तरह अपने दिमाग और अन्तर्मन के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रही थी। Advocate आनंद भी इसके लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने ऐसा case पहले कभी नहीं देखा था। उन्होंने जज मैडम से गुज़ारिश की -
Advocate आनंद: मैडम, हमें सोचने का थोड़ा time दीजिये। अगली तारीख ....
सुधा ने Advocate आनंद को बीच में ही टोका और धीमी आवाज़ में कहा - नहीं मैडम, मुझे कुछ नहीं कहना।
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