सूरज भी अब अपने घर की तरफ रुख कर चला था। साँझ जितनी काली थी, उतनी ही डरावनी भी। चौपाल पर जमघट लगा था। दुलारी सुबक-सुबक कर रो रही थी। सुबह से ही उसका बुरा हाल था। एक तरफ कुआँ तो दूसरी तरफ खाई। ना तो वह मानसिंह के साथ रह सकती थी और ना ही उसके बिना। 2 बच्चों को ले कर अकेली करेगी क्या? कैसे जियेगी? कैसे पालेगी बच्चों को? इसका जवाब तो महिला आयोग वालों के पास नहीं था लेकिन वे लोग दुलारी का पक्ष ले कर मानसिंह को खूब सुना चुके थे। महिला आयोग की बिमला मैडम तो यूं अपनी धाक जमाए बैठी थी, मानो वो ही सरपंच हो। पिछले कुछ दिनों में दुलारी और पंचों पर पूरी तरह से दबाव बना रखा था। अब तो बस पंचायत के फैसले का इंतज़ार था।
चौधरी साहब ने मानसिंह की ओर देखा। वह तो बस अपनी गर्दन झुकाए और मुठियां भींचे खड़ा था। गाँव के सबसे समझदार लोगों में गिनती होती है मानसिंह की। फिर अपनी पत्नी के साथ ऐसा व्यवहार? गाली-गलौच तक तो फिर भी यकीन कर सकते हैं पर मार-पीट!!! यह तो हद हो गई थी। उसके गुस्से की गवाह तो पड़ोसन छाया भी थी। छाया दुलारी के घर पर ही थी जब काम से आते ही मानसिंह ने दुलारी को उसके सामने ही फटकार लगायी थी। दुलारी कई दिन तक छाया से नज़र नहीं मिला पाई थी। देखो तो इस निर्लज को - माथे पर शिकन तक नहीं।
"अब सोच क्या रहे हो चौधरी साहब? अपना फैसला सुनाइये।" बिमला मैडम ने रौबदार आवाज़ में कहा।
"तो यह तय रहा। दुलारी दोनों बच्चों के साथ इसी घर में रहेगी। मानसिंह हर महीने 5000/- खर्चे के लिए दुलारी को देगा। इस गाँव में आने की इजाज़त नहीं है। पैसे किसी के हाथ भिजवा देगा। और अगर उसने ऐसा नहीं किया तो पुलिस में शिकायत की जाएगी। "
"क्या कह रहे हैं चौधरी साहब? इतना पैसा तो उसकी कमर तोड़ देगा! कैसे देगा वह इतने पैसे हर महीने? और खुद कहाँ रहेगा? इतना तो बहुत ज्यादा है। कुछ तो रहम करो।" बब्बन तिलमिला कर बोला।
"अरे शुक्र करो की पुलिस में नहीं दे दिया इसको। सारा जीवन चक्की पीसता रहता।" बिमला मैडम टूट पड़ी बब्बन पर।
"पंचों ने फैसला सुना दिया है। रात हो चुकी है। मानसिंह को आज रस्सी से बाँध कर रखा जाए। मौका मिलने पर बैल भागने की कोशिश करता है। बब्बन, तुम्हें ही इसकी पहरेदारी करनी होगी। कल सुबह इसको गाँव से निकाल दिया जायेगा।" चौधरी साहब ने कड़क आवाज़ में कहा।
"हाँ हाँ ! पूरा गाँव देखेगा की इस्त्रियों से बद्तमीज़ी करने का क्या अंजाम होता है!" बिमला मैडम ने अपनी जीत का डंका बजा दिया था।
मानसिंह के हाथ रस्सी से बाँध दिए गए। बब्बन ने रस्सी पकड़ी और मानसिंह को ले कर चल पड़ा। मानसिंह चुप-चाप बब्बन के पीछे पीछे चल रहा था।
"यार , तूने अपने बचाव में कुछ कहा क्यों नहीं? खुल कर बोला होता तो यह सब नहीं होता। तेरी समझदारी तो पुरे गाँव में मशहूर है। और सब जानते हैं, दुलारी की किसी से नहीं बनती। सजने-सवरने के सिवा और करती क्या है पूरा दिन? और तेरी पीठ पर जो चिमटे का निशान है, वह क्यों नहीं दिखाया तूने? तू कुछ बोलता क्यों नहीं? कुछ बोलेगा भी?"
"बब्बन, तू तो मेरा दोस्त है। सब जानता है। मुझे तो बस बच्चों की चिंता है। दुलारी को कहाँ फुरसत की वो बच्चों को देखे। सुंदर होने का घमंड ही उसका साथी है। मेरा क्या है? काम के साथ-साथ घर और बच्चों को संभालने से मुझे तो आदत सी हो गयी है। मेरे जितना काम यहाँ करता था, उतना ही शहर जा के कर लूंगा। पर पता नहीं बच्चे मेरे बिना कैसे रह सकेंगे? उनको पढ़ाएगा कौन, खाना कौन देगा? दुलारी अपने घमंड में उनकी ज़िंदगी ना खराब कर दे !" कोल्हू के बैल की तरह पिसने जा रहा था शहर, और वो भी बिना दुलारी से कोई उम्मीद किये।
दोनों बस चले जा रहे थे। जल्दी से जल्दी घर जो पहुँचना था। चलते चलते नदी तक पहुँच गए। नदी के किनारे जा कर रुक गया मानसिंह। पैर दुखने लगे थे उसके। दोनों थोड़ी देर वहीं बैठ गए। मानसिंह नदी की ओर टक-टकी लगाए देख रहा था। इस बार तो पानी भी खूब उफान मार रहा था। पिछले साल की बाढ़ में कच्चा पुल भी टूट गया था। अगर कोई गिर जाए तो बस ... हो गया काम।
"पता नहीं क्या सोच रहा है मानसिंह? हे भगवान कहीं .... नहीं नहीं भगवान, ऐसा करने से रोक दो उसे !"
बब्बन थोड़ा घबराया और फिर हाथ आगे बढ़ा कर उसने मानसिंह की रस्सी खोल दी। मानसिंह ने अपना कुर्ता उतार दिया, और फिर पैजामा। नदी पार करने के लिए कूद गया। बब्बन थोड़ी देर तक वहीं खड़ा नदी की ओर देखता रहा और मन में प्रार्थना करता रहा कि मानसिंह उस ओर पहुँच जाए।